Saturday, August 9, 2008

राखी के बंधन को निभाना

भईया मेरे राखी के बंधन को निभाना। एक बहिन की आवाज भाई के लिए, इस पवित्र रिश्ते को कायम रखने के लिए याद ही नहीं दिलाती है बल्कि मौका आने पर सुरक्षा देना। यह त्यौहार सिर्फ भाई-बहिन के लिए नहीं है,बल्कि कोई भी महिला किसी पुरुष से सहायता के लिए राखी भेज सकती है। राजपूताना जब खतरे में पड़ा तब चित्तौड़ की रानी कर्णवती ने मुगल बादशाह हुमायूं को धागा भेज कर राज्य की सुरक्षा की मांग की थी, उसने न सिर्फ धागा को स्वीकार किया, बल्कि सेना भी भेजी, किंतु तब तक देर हो चुकी थी और राज्य गुजरात के बहादुर शाह द्वारा लुट चुका था। महिलाएं धागा के माध्यम से अपनी सुरक्षा की मांग करती थीं। बस यहीं से रक्षाबंधन शुरू हो गया। आज महिलाएं रक्षा के साथ-साथ पैसे की भी मांग करती हैं। धागा की जगह आधुनिक राखी ने ले ली है। कहने का तात्पर्य है कि क्या महिला असुरक्षित हैं, जो वह राखी के बदले अपनी सुरक्षा की मांग करती हैं। नारी सशक्कतीकरण के बावजूद भी नारी सुरक्षित नहीं है। समाज में कई प्रकार के दरिंदगे मौजूद हैं, जो उन्हें अकेला पाकर सब वो काम कर डालते हैं, जिससे वह घर, समाज में रहने लायक नहीं रहती है। अंतत: वह आत्महत्या कर लेती है,क्योंकि नारी इज्जत के साथ जीना चाहती है। जब उसकी इज्जत चली जाती है तब वह जीकर क्या करेगी। देखा जाए महिला कभी भी सुरक्षित नहीं रही है। छोटी उम्र तक वह भाई के अधीन रही, शादी के बाद वह पति के अधीन और मां बनने पर वह अपने पुत्र या पुत्रों के अधीन रहती है। जब तक यह सुरक्षा का क्रम चलता रहा तब तक महिलाओं पर अत्याचार की घटनाएं बहुत कम हुआ करती थीं, लेकिन आज नारी आजाद है, अकेले घूम फिर रही हैं, उसी का लाभ ले रहे हैं समाज में मौजूद असमाजिक तत्व। नारी को सशक्कत होना होगा, उसे असमाजिक तत्वों से लड़ने की कला सीखनी होगी। छायावादी कवि सुमित्रानंदन पंत ने कहा कि एक नहीं दो-दो मात्राएं नर से भारी नारी।

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