Thursday, September 30, 2010

न मेरी जय जय न तुम्हारी जय जय

इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच के माननीय तीन जजों ने बहुमत से फैसला दिया कि अयोध्या में विवादित स्थल को तीन हिस्सों में सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्माेही अखाड़ा और राम लला पक्ष को बराबर बांटा जाए। फैसले में सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड का दीवानी दावा खारिज करते हुए कहा कि विवादित स्थल पर रामलला की पूजा जारी रहेगी। तीनों न्यायमूर्तियों एस. यू. खान, सुधीर अग्रवाल और डी. वी. शर्मा ने दिए अलग-अलग फैसले। आज के फैसले के बारे में मैं यही कहना चाहूंगा कि इस फैसले में न किसी की जीत हुई है और न ही किसी की हार।

Tuesday, September 28, 2010

अयोध्या फैसला 30 को

घुंघरू की तरह बजता ही रहा अयोध्या विवाद, कभी इस ओर से कभी उस ओर से। साठ साल का बुजुर्ग विवाद का निपटारा आखिरकार देश के महत्वपूर्ण उच्च न्यायालयों में से एक इलाहाबाद उच्च न्यायालय को आज देश की शीर्ष न्यायालय ने अधिकृत कर दिया है कि अमुक न्यायालय रामजन्मभूमि और बाबरी मस्जिद विवाद का फैसला देने के लिए आजाद है। अब लखनऊ पीठ 30 सितंबर को 3:30 बजे फैसला सुनाएगी। साठ साल से चला आ रहा मालिकाना हक को लेकर विवाद का निपटारे की घड़ी आने वाली है। आज सुप्रीम कोर्ट ने सुलह याचिका खारिज कर जता दिया है कि हाईकोर्ट ही फैसला देने के लिए सर्वोत्तम संस्था है।

Thursday, September 23, 2010

विवाद के 60 साल

राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद देश के सबसे अहम और संवेदनशील मामलों में से है।
60 साल से फैसले की बाट जोह रहे इस मामले में फैसला आनेवाला है। फैसला किसके हक में होगा और उसके क्या नतीजे होंगे, यह तो फैसले के बाद ही पता चलेगा लेकिन क्यों और कैसे यह मामला इतना चर्चित हो गया, यह जानना भी काफी मायने रखता है। ऐसा मामला, जो लाखों लोगों की धार्मिक भावना से ताल्लुक रखता हो और जो सरकार बनाने और गिराने की वजह बन गया हो, जाहिर है उसके फैसले पर पूरे देश की निगाहें हैं। इस हफ्ते राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद पर कोई नतीजा निकलने की उम्मीद है। इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच इस मामले पर फैसला सुनाएगी। लेकिन क्या किसी भी नतीजे से दोनों पक्ष सहमत हो पाएंगे? ऐसा नहीं हुआ तो क्या होगा? इन तमाम सवालों पर चर्चा से पहले जानते हैं कि आखिर एक मंदिर और मस्जिद को लेकर विवाद क्यों और किस हालत में पनपा? सांप्रदायिक सौहार्द का प्रतीक अयोध्या से हिंदू धर्म का नाता जगजाहिर है लेकिन यह किसी एक मजहब की जागीर नहीं है। यहां बड़ी संख्या में मुसलमान भी रहते हैं। अनुमान है कि अयोध्या में पांच हजार से ज्यादा मंदिर हैं तो करीब 85-90 मस्जिदें भी हैं। दिलचस्प यह है कि कई मंदिर और मस्जिद तो एक दूसरे से सटे हुए हैं। ऐतिहासिक औरंगजेबी मस्जिद के ठीक पीछे सीताराम निवास कुंज मंदिर है। दोनों में महज एक दीवार का फासला है। यही नहीं, 5वीं और 7ठीं शताब्दी में चीनी इतिहासकारों ह्यान और ह्यून सांग ने यहां की यात्रा की, क्योंकि उस वक्त इसे बौद्ध धर्म की पवित्र नगरी माना जाता था। कह सकते हैं कि सांप्रदायिक भाईचारे का प्रतीक रही है अयोध्या नगरी। यहां तक कि जिस बाबरी मस्जिद को लेकर विवाद है, उसमें मौजूद कुएं से सभी धर्मों के लोग पानी पीते थे। फैजाबाद के डिस्ट्रिक्ट गैजेटर (डीजीएफ) के मुताबिक इस कुएं के पानी को आसपास के लोग चमत्कारी और बीमारियों से निजात दिलाने वाला मानते थे। 1857 से पहले हिंदू और मुसलमान मिलकर मिलकर इस जगह पर पूजा करते थे, लेकिन गदर के बाद तस्वीर बदल गई। कैसे खड़ा हुआ विवाद 1853 में इस जगह के आसपास पहली बार दंगे हुए। 1859 में अंग्रेजी प्रशासन ने विवादित जगह के आसपास बाड़ लगा दी। मुसलमानों को ढांचे के अंदर और हिंदुओं को बाहर चबूतरे पर पूजा करने की इजाजत दी गई। फरवरी 1885 में महंत रघुबर दास ने फैजाबाद के उप-जज के सामने याचिका दायर की कि यहां मंदिर बनाने की इजाजत दी जाए। जज पंडित हरिकृष्ण ने यह कहकर इसे खारिज कर दिया कि यह चबूतरा पहले से मौजूद मस्जिद के इतना करीब है कि इस पर मंदिर बनाने की इजाजत नहीं दी जा सकती। असली विवाद शुरू हुआ 23 दिसंबर 1949 को, जब भगवान राम की मूर्तियां मस्जिद में पाई गईं। हिंदुओं का कहना था कि भगवान राम प्रकट हुए हैं, जबकि मुसलमानों ने आरोप लगाया कि किसी ने रात में चुपचाप मूर्तियां वहां रख दीं। उस वक्त के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने यूपी के मुख्यमंत्री जी. बी. पंत से इस मामले में फौरन कार्रवाई करने कहा। यूपी सरकार ने मूर्तियां हटाने का आदेश दिया लेकिन जिला मैजिस्ट्रेट के. के. नायर ने दंगों और हिंदुओं की भावनाओं के भड़कने के डर से इस आदेश को पूरा करने में असमर्थता जताई। हालांकि नायर के बारे में माना जाता है कि वह कट्टर हिंदू थे और मूर्तियां रखवाने में उनकी पत्नी शकुंतला नायर का भी रोल था। बहरहाल, सरकार ने इसे विवादित ढांचा मानकर ताला लगवा दिया। 16 जनवरी 1950 को गोपाल सिंह विशारद नामक शख्स ने फैजाबाद के सिविल जज के सामने अर्जी दाखिल कर यहां पूजा की इजाजत मांगी। उस वक्त के सिविल जज एन. एन. चंदा ने इजाजत दे दी। मुसलमानों ने इस फैसले के खिलाफ अर्जी दायर की। विवादित ढांचे की जगह मंदिर बनाने के लिए 1984 में वीएचपी ने एक कमिटी गठित की। यू. सी. पांडे की याचिका पर फैजाबाद के जिला जज के. एम. पांडे ने 1 फरवरी 1986 को हिंदुओं को पूजा करने की इजाजत देते हुए ढांचे पर से ताला हटाने का आदेश दिया। इसके विरोध में बाबरी मस्जिद संघर्ष समिति का गठन किया गया। 06 दिसंबर 1992 को बीजेपी, वीएचपी और शिवसेना समेत लाखों हिंदूवादी कार्यकर्ताओं ने विवादित ढांचे को गिरा दिया। देश भर में हिंदू-मुसलमानों के बीच दंगे भड़के गए, जिनमें करीब दो हजार लोग मारे गए। दूसरी ओर, 1984 में सिर्फ दो लोकसभा सीटें जीतनेवाली बीजेपी इस मसले की बदौलत 1996 में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। मंदिर या मस्जिद! माना जाता है कि बाबर के सहायक मीर बाकी ने 1528 में यहां मस्जिद बनवाई। हिंदूवादियों का मानना है कि इस मस्जिद का निर्माण मंदिर को तोड़कर कराया गया। बाबरनामा में इस बारे में कई जिक्र नहीं मिलता क्योंकि इस काल के पेज ही गायब हैं, जबकि तारीख-ए-बाबरी में लिखा है कि कई मंदिरों को तोड़कर मस्जिद बनाई गईं। लेकिन इस जगह के बारे में साफ तौर पर कुछ नहीं कहा गया। हिंदूवादी मानते हैं कि 1940 तक इसे मस्जिद-ए-जन्मस्थान कहा जाता था और 1992 में मस्जिद गिराए जाने के दौरान यहां से कुछ अवशेष मिले, जो मंदिर होने की ओर इशारा करते हैं। दूसरी ओर, 'ए हिस्टोरियंस रिपोर्ट टु नेशन' में मशहूर इतिहासकार डी. एन. झा समेत तीन इतिहासकारों ने कहा कि इस जगह पर मंदिर के कोई सबूत नहीं मिले। एएसआई के बी. बी. लाल ने खुदाई में पाए गए जिन खंभों (1. 70 मी ऊंचे) की बात कही, उन पर मंदिर बनना मुश्किल है। जन्मस्थान शब्द का इस्तेमाल भी 18वीं शताब्दी में ही सुनने को मिलता है, उससे पहले नहीं। केस कैसे-कैसे इस विवाद को लेकर दो तरह के मामले चल रहे हैं : पहला, मालिकाना हक को लेकर और दूसरा, मस्जिद गिराए जाने में भूमिका को लेकर। 24 तारीख को जिन मामलों में फैसला आएगा, उनमें गोपाल सिंह विशारद (1950), निर्मोही अखाड़ा (1959), यूपी सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड (1961) और भगवान श्रीराम लल्ला विराजमान (1989) द्वारा दायर मामले हैं। अदालत फैसला सुनाएगी कि 1538 से पहले क्या यहां कोई मंदिर था या नहीं? मुसलमानों का इस जगह पर जायज हक है या उन्होंने गलत तरीके से हक जताया? इन मामलों की सुनवाई पहले फैजाबाद सिविल कोर्ट कर रहा था। 1989 में इलाहाबाद कोर्ट की स्पेशल बेंच बनाए जाने के बाद सारे मामले वहां ट्रांसफर कर दिए गए। बेंच ने 26 जुलाई को सुनवाई पूरी कर ली है। अब फैसले का इंतजार है। तर्क अपने-अपने मामले की सुनवाई कर रही बेंच के तीन जजों में से एक इसी महीने रिटायर हो रहे हैं। अगर वह फैसला किए बिना रिटायर हो जाते हैं तो भारतीय कानून के मुताबिक मामले की पूरी सुनवाई फिर से होगी। ऐसे में हो सकता है कि वह फैसला करके जाएं। यह भी हो सकता है कि फैसला टाल दिया जाए। यह तय है कि जिस पक्ष के खिलाफ फैसला आएगा, वह सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाएगा। फैसले के बाद कोई हिंसा न भड़के , इसके लिए सरकार ने हिंदू और मुस्लिम नेताओं के साथ बातचीत शुरू कर दी है। ऑल इंडिया बाबरी मस्जिद एक्शन कमिटी के पूर्व कनवीनर जावेद हबीब ने आउट ऑफ कोर्ट सेटलमेंट के लिए पीएम को पत्र लिखा। लेकिन सभी इसके पक्ष में नहीं हैं। मामले में पहला केस दायर करनेवाले गोपाल सिंह विशारद के बेटे राजेंद्र सिंह विशारद का कहना है कि हम किसी तरह का समझौता नहीं चाहते। मंदिर से कम कुछ नहीं चाहिए। आखिर 60 साल से हम उसी के लिए लड़े हैं और हमें हमारा हक मिलना चाहिए। खुदाई में काफी ऐसे सबूत मिले हैं, जो बताते हैं कि यहां मंदिर था। अगर हम हार गए तो इंसाफ के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाएंगे। क्या हो सकता है आगे बाबरी मस्जिद एक्शन कमिटी के कनवीनर जफरयाब जिलानी का दावा है कि उनके पास काफी मजबूत सबूत हैं। वह कहते हैं कि चारों मामलों में मैं 1986 से वकील हूं। हमें उम्मीद है कि फैसला हमारे हक में होगा लेकिन फिर भी हम हर फैसले के लिए तैयार हैं। अगर हम हार गए तो सुप्रीम कोर्ट में लड़ेंगे। आउट ऑफ कोर्ट सेटलमेंट की बात बेमानी है, लेकिन हम किसी तरह की सांप्रदायिक हिंसा को सपोर्ट नहीं करेंगे। जिसके भी पक्ष में फैसला आएगा, दूसरे की नाराजगी तय है। इसके मद्देनजर यूपी सरकार ने अभी से सुरक्षा बढ़ानी शुरू कर दी है। प्रधानमंत्री हाल में संपादकों के साथ मीटिंग में कह चुके हैं कि कश्मीर मसला, नक्सल समस्या और अयोध्या पर फैसला आनेवाले भारत की तस्वीर तय करेंगे। वैसे, राजनीतिक हलकों में फैसले के लिए यह वक्त सही नहीं माना जा रहा। अगले महीने कॉमनवेल्थ गेम्स शुरू होने हैं तो आनेवाले कुछ महीनों में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा, फ्रेंच राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी और रूसी राष्ट्रपति भारत आनेवाले हैं। ऐसे में किसी भी तरह का तनाव भारी पड़ सकता है। फिलहाल, 24 सितंबर का इंतजार करना बेहतर है! कब क्या हुआ 1528 : माना जाता है कि बाबर के सचिव मीर बाकी ने यहां बाबरी मस्जिद बनाई। 1853 : पहली बार इस जगह के पास सांप्रदायिक दंगे हुए। 1859 : अंग्रेजी प्रशासन ने विवादित जगह के आसपास बाड़ लगा दी। मुसलमानों को ढांचे के अंदर और हिंदुओं को बाहर पूजा करने की इजाजत दी गई। 1949 : 23 दिसंबर को भगवान राम की मूर्तियां मस्जिद में पाई गईं। मुसलमानों ने इसका विरोध किया। दोनों पक्षों ने मुकदमा दायर कर दिया। सरकार ने इसे विवादित ढांचा मानकर ताला लगवा दिया। 1950 : 16 जनवरी को गोपाल सिंह विशारद नामक शख्स ने फैजाबाद के सिविल जज के सामने अर्जी दाखिल कर पूजा की इजाजत मांगी। सिविल जज ने इजाजत दे दी। मुसलमानों ने इस फैसले के खिलाफ अर्जी दायर की। 1984 : विवादित ढांचे की जगह मंदिर बनाने के लिए वीएचपी ने एक कमिटी गठित की। बाद में इस आंदोलन की कमान बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी ने ले ली। 1986 : सरकार ने हिंदुओं को पूजा करने के लिए ढांचे से ताला हटाने का आदेश दिया। इसके विरोध में बाबरी मस्जिद संघर्ष समिति का गठन किया गया। 1989 : वीएचपी ने मंदिर निर्माण आंदोलन तेज किया और विवादित ढांचे के पास राम मंदिर की नींव रखी। मुलायम सरकार के अनुरोध पर विवादित ढांचे से संबंधित सारे मामले इलाहाबाद की लखनऊ बेंच को ट्रांसफर कर दिए गए। 1992 : 12 दिसंबर को बीजेपी, वीएचपी और शिवसेना के कार्यकर्ताओं ने विवादित ढांचे को गिरा दिया। देश भर में हिंदू मुसलमानों के बीच दंगे भड़के दंगों में करीब दो हजार लोगों की मौत हो गई। मामले की जांच के लिए 16 दिसंबर को लिबरहान आयोग गठित किया गया। जनवरी 2002 : प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इस मामले को सुलझाने के लिए अयोध्या समिति का गठन किया। फरवरी 2002 : वीएचपी ने 15 मार्च से राम मंदिर निर्माण शुरू करने का ऐलान किया। सैकड़ों कार्यकर्ता अयोध्या में जमा हुए। हिंदू कार्यकर्ता जिस गाड़ी से लौट रहे थे, उस पर गोधरा में अराजक तत्वों ने आग लगा दी। इसमें 58 लोग जिंदा जल गए। इसके बाद हुए गुजरात दंगों में सैकड़ों लोगों की जानें गईं। 2003 : आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया ने मंदिरों के अवशेषों की तलाश में खुदाई शुरू की, लेकिन कोई ठोस नतीजा नहीं निकला। 2009 : 30 जून को 17 साल और 48 बार एक्सटेंशन के बाद लिबरहान आयोग ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को रिपोर्ट सौंपी। इसमें अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी समेत बीजेपी, शिवसेना और आरएसएस के कई टॉप नेताओं पर सांप्रदायिक तनाव फैलाने का शक जाहिर किया गया।

मंदिर ना मस्जिद

तीन मामलों में फैसला-पहला क्या विवादित स्थल पर 1538 से पहले एक मंदिर था ? दूसरा क्या बाबरी कमिटी की तरफ से 1961 में दायर केस अब नहीं ठहरता है ? तीसरा क्या मुसलमानों ने उलट अधिग्रहण के जरिये अपनी मिल्कियत को पुख्ता किया है ? कोर्ट में राम जम्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवादः तारीख दर तारीख टाइटल का पहला केस 1950 में गोपाल दास विशारद ने यह कहते हुए फाइल किया कि रामलला की पूजा की इजाजत दी जाए। उसी साल परमहंस रामचंद दास ने भी केस फाइल किया , लेकिन फिर उसे वापस ले लिया। तीसरा केस 1959 में निर्मोही अखाड़े ने फाइल किया और उस जगह का कब्जा रिसीवर से मांगा। चौथा केस 1961 में यूपी सुन्नी वक्फ बोर्ड ने दर्ज किया और कब्जा मांगा। छठा केस 1989 में रामलला की तरफ से दाखिल हुआ। फिलहाल उनमें से चार केस चल रहे हैं। अयोध्या विवाद के 60 साल सबसे लंबा मुकदमा किसी धार्मिक स्थल के स्वामित्व को लेकर लड़ा जा रहा यह देश के इतिहास का सबसे लंबा मुकदमा है। वैसे तो बाबरी ढांचा पर मालिकाना हक का मामला तो सौ बरस से भी अधिक पुराना है , लेकिन यह अदालत पहुंचा 1949 में। यह विवाद 23 दिसंबर 1949 को शुरू हुआ जब सुबह बाबरी मस्जिद का दरवाजा खोलने पर पाया गया कि उसके भीतर रामलला की मूर्ति रखी थी। अगले दिन वहां हजारों लोगों की भीड़ जमा हो गई और पांच जनवरी 1950 को डीएम ने सांप्रदायिक तनाव की आशंका से बाबरी ढांचा को विवादित इमारत घोषित कर उस पर ताला लगाकर इसे सरकारी कब्ज़े में ले लिया। 16 जनवरी 1950 को गोपाल सिंह विशारद ने फैजाबाद की जिला अदालत में अर्जी दी कि हिंदुओं को उनके भगवान के दर्शन और पूजा का अधिकार दिया जाए। दिगंबर अखाड़ा के महंत और राम जन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष परमहंस रामचंद्र दास ने भी ऐसी ही एक अर्जी दी। 19 जनवरी 1950 को फैजाबाद के सिविल जज ने इन दोनों अर्जियों पर एक साथ सुनवाई की और मूर्तियां हटाने की कोशिशों पर रोक लगाने के साथ साथ इन मूर्तियों के रखरखाव और हिंदुओं को बंद दरवाज़े के बाहर से ही मूर्तियों के दर्शन करने की इजाजत दे दी। साथ ही , अदालत ने मुसलमानों पर पाबंदी लगा दी कि वे इस ' विवादित मस्जिद ' के तीन सौ मीटर के दायरे में न आएं। उमेश चंद्र पांडे की एक याचिका पर फैजाबाद के जिला जज के एम पांडे ने एक फरवरी 1986 को विवादित मस्जिद के ताले खोलने का आदेश दिया और हिंदुओं को उसके भीतर जाकर पूजा करने की इजाजत दे दी। 1987 में उत्तर प्रदेश सरकार ने इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच में एक याचिका दायर कर विवादित ढांचे के मालिकाना हक के लिए जिला अदालत में चल रहे चार अलग अलग मुकदमों को एक साथ जोड़कर हाई कोर्ट में एक साथ सुनवाई की अपील की। इसके बाद 1989 में अयोध्या की जिला अदालत में एक याचिका दायर कर मांग की गई कि विवादित ढांचे को मंदिर घोषित किया जाए। हाई कोर्ट ने पांचों मुक़दमों को साथ जोड़कर तीन जजों की एक बेंच को सौंप दिया। 1993 में उत्तर प्रदेश की तत्कालीन बीजेपी सरकार ने विवादित स्थल के आसपास की 67 एकड़ जमीन को सरकारी कब्जे में लेकर वीएचपी को सौंप दिया। 1994 में सुप्रीम कोर्ट ने इस फ़ैसले को निरस्त कर सरकार को आदेश दिया था कि विवादित ढांचे के आसपास की यह जमीन दोबारा अधिगृहीत की जाए और उस पर तब तक यथास्थिति बनाकर रखी जाए जब तक हाई कोर्ट मालिकाना हक का फैसला न कर दे। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि मालिकाना हक का फैसला होने से पहले अविवादित जमीन को भी किसी एक समुदाय को सौंपना धर्मनिरपेक्षता की भावना के अनुकूल नहीं होगा। अपने दावे के पक्ष में हिंदुओं ने 54 और मुस्लिम पक्ष ने 34 गवाह पेश किए।

अयोध्या: एक फैसला और 28 मुद्दे

राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद पर 24 को फैसला आएगा। पूरा देश यह जानना चाहता है कि आखिर इस विवादित जमीन पर किसका मालिकाना हक है। इस मामले पर सुनवाई के दौरान इलाहाबाद हाई कोर्ट की स्पेशल लखनऊ बेंच ने 28 मुद्दों को अपने फैसले का आधार बनाया है। यानी जमीन पर किसका मालिकाना हक इसको तय करने को लेकर कोर्ट ने इन 28 मुद्दों पर गौर फरमाया है। इस विवादित जमीन के लिए 5 मुकदमे चल रहे हैं। इसके अलावा कोर्ट एक दर्जन से ज्यादा मामला निपटा चुका है, जिसमें जमीन की मिल्कियत, पूजा-प्रार्थना के मामले को लेकर लोगों ने मुकदमें दायर किए थे। इस मामले में पहला मुकदमा 1885 में दायर किया गया था। महंत रघुबर दास ने फैजाबाद कोर्ट में यह मुकदमा दायर किया था। उन्होंने फैजाबाद कोर्ट से इजाजत मांगी थी कि उन्हें विवादित ढांचे के पास चबूतरा बनाने की इजाजत दी जाए, जहां पर भगवान की प्रार्थना की जा सके। लेकिन, कोर्ट ने इस मुकदमे को खारिज कर दिया था। कोर्ट का तर्क था कि 350 (1528) साल पहले यह विवाद हुआ था और आपने मुकदमा काफी लेट किया है। गौरतलब है कि बाबरी मस्जिद का निर्माण मुगल बादशाह बाबर के सिपहसलार मीर बाकी द्वारा 1528 में कराया गया था। हिंदू धर्माचार्यों का दावा है कि मीर बाकी ने हिंदू मंदिर को तोड़ कर वहां मस्जिद का निर्माण किया था। 1949 में कुछ लोगों ने विवादित ढांचे में जबरन भगवान राम की मूर्ति रख दी और पूजा की इजाजत मांगी, लेकिन प्रशासन ने उसे यथास्थिति बनाए रखा। इस मामले में 16 जनवरी 1950 को 2 अलग-अलग मुकदमे दायर हुए। ये मुकदमे हिंदू महासभा की तरफ से गोपाल सिंह विशारद और दिगंबर अखाड़ा की ओर से परमहंस रामचंद्र दास ने किए। जिस भी पार्टी के खिलाफ फैसला आएगा वह सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाएगा। यहां तक कि क्यूरेटिव पिटिशन के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट के जजमेंट को भी चुनौती दिया जा सकता है। ये हैं 28 मुद्दे जिन के आधार पर फैसला होगा:- अयोध्या मसले पर अदालत का फैसला 24 सितंबर को आने वाला है। इस मामले में 28 मुद्दे शामिल हैं, जिन्हें इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच ने फ्रेम किए हैं। आइए नजर डालें - क्या ढहा दिया गया ढांचा मस्जिद था, जैसा कि वादी मुस्लिम संगठन दावा करते हैं? अगर हां, तो यह कब और किसने बनावाया था-मुगल बादशाह बाबर ने या उनके अवध गवर्नर मीर बाकी ने। क्या यह एक हिन्दू मंदिर को ध्वस्त कर बनाया गया था? क्या मुसलमान बाबरी मस्जिद में अनंत काल से इबादत करते आए थे? क्या मुसलमानों ने 1528 में कथित रूप से ढांचा बनाए जाने के बाद इस जायदाद को खुले रूप से और निरंतर अपने कब्जे में रखा था? क्या मुसलमानों ने इसे 1949 तक अपने कब्जे में रखा था, जब उन्हें इससे बेदखल कर दिया गया? क्या इस पर केस बहुत देर से दायर किया गया? क्या प्रतिकूल और लगातार कब्जे के जरिए हिन्दुओं ने उस स्थल पर पूजा करने का अधिकार हासिल कर लिया है? क्या भूखंड राम का जन्मस्थान है? क्या हिन्दुओं ने अनंत काल से वहां राम जन्मस्थान के रूप में पूजा की है? क्या मूर्तियां और पूजा की अन्य चीजें ढांचे के अंदर 22-23 दिसंबर, 1949 की रात में रखी गईं, या वे वहां उससे पहले से ही थीं? क्या विवादित ढांचे से लगा ऊंचामंच जिसे राम चबूतरा कहते हैं और भंडार और सीता रसोई मुख्य ढांचे के साथ ही ढहा दी गई? क्या ढांचे से लगे पूर्व, उत्तर और दक्षिण के भूखंड पर एक पुरानी कब्रगाह और एक मस्जिद थी? क्या ढांचा ऐसी जमीन से घिरा हुआ है कि हिन्दुओं के पूजा स्थलों को पार किए बिना ढांचे तक नहीं पहुंचा जा सकता है? क्या इस्लामी नियमों के मुताबिक उस भूखंड पर मस्जिद नहीं बनाया जा सकता (क्योंकि वहां मूर्तियां रख दी गई हैं)? क्या ढांचा कानूनी रूप से मस्जिद नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें मीनारें नहीं थीं? क्या यह ढांचा एक मस्जिद नहीं हो सकता, क्योंकि यह 3 ओर से एक कब्रगाह से घिरा है? क्या ढांचे के विध्वंस के बाद इसे अभी भी मस्जिद कहा जा सकता है? क्या ढांचे को ढहा दिए जाने के बाद मुसलमान खुली जगह का इस्तेमाल नमाज पढ़ने के लिए कर सकते हैं? क्या वादी मुस्लिम संगठन राहत पाने के हकदार हैं और अगर हां तो क्या

अयोध्या विवाद के फैसले पर रोक लगी

अयोध्या विवाद पर शुक्रवार को आने वाले फैसले पर सुप्रीम कोर्ट ने फिलहाल एक सप्ताह तक के लिए रोक लगा दी है। मतलब साफ है कि इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच का फैसला अब 24 को नहीं आएगा। सुप्रीम कोर्ट में अब इस मामले की अगली सुनवाई 28 सितंबर को होगी। रमेश चंद्र त्रिपाठी की याचिका पर दो जजों की पीठ ने सुनवाई की। दोनों जजों में मतभेद था। एक जज याचिका खारिज करने के पक्ष में थे, जबकि दूसरे इसके खिलाफ थे। इसलिए सुप्रीम कोर्ट की परंपरा के मुताबिक हाई कोर्ट को फैसला सुनाने से रोकने का निर्णय लिया गया।अब इस मामले की अगली सुनवाई 28 सितंबर को होगी। अदालत को इस बात की जानकारी है कि लखनऊ बेंच के एक जज रिटायर होने वाले हैं। इसलिए मामले पर 28 तारीख को सुनवाई होगी। सभी पक्षों को नोटिस जारी किया गया है और अटॉर्नी जनरल को भी इस दिन अदालत में उपस्थित रहने को कहा गया है।याचिका में अयोध्या विवाद पर फैसला टालने और इस जटिल मामले का अदालत से बाहर शांतिपूर्ण समाधान निकालने की संभावना तलाशने के लिए संबंधित पक्षों को निर्देश देने की अपील की गई थी। याचिका में कम से कम तीन से 14 अक्टूबर तक होने वाले राष्ट्रमंडल खेलों तक इस फैसले को टालने की भी अपील की गई थी।

Sunday, September 12, 2010

सबकी नजर है अयोध्या पर आने वाले फैसले पर

अयोध्या के विवादित स्थल पर स्वामित्व संबंधी मुकदमों का निर्णय आने में अब बमुश्किल दो हफ्ते रह गए हैं। फैसला जो भी हो प्रभाव अखिल भारतीय होगा। लिहाजा राजनीतिक दलों ने अभी बिल्कुल खामोशी बना रखी है, जबकि प्रशासन ने अदालत के निर्णय पर किसी भी प्रकार की विपरीत प्रतिक्रिया से उत्पन्न होने वाली स्थिति पर काबू पाने के लिए कमर कस ली है।ऊपरी तौर पर हालांकि पूरी तरह शांति है, लेकिन कुछ राजनेताओं एवं धार्मिक संगठनों के बार-बार के इस कथन से तनाव की आशंका गहरा रही है कि अयोध्या का मामला आस्था और विश्वास का प्रश्न है।कानून और व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी संभाल रहे अधिकारियों को चिंता इस बात की है कि फैसला जो भी हो लेकिन मनमाफिक फैसला नहीं आने पर कुछ ताकतें और अराजक तत्व माहौल को बिगाड़ने की कोशिश कर सकते हैं।राम जन्म भूमि बाबरी मसजिद विवाद 1990 के दशक में देश की राजनीति पर अपना असर दिखा चुका है और इस पर स्वामित्व को लेकर 60 साल से चल रहे मुकदमों पर 24 सितंबर को अदालत फैसला जो भी सुनाए, कानून एवं व्यवस्था के लिए चुनौतीपूर्ण स्थिति पैदा होने की आशंका खारिज नहीं की जा सकती।बहरहाल, उत्तर प्रदेश प्रशासन किसी भी स्थिति पर काबू पाने के लिए अपनी कमर कस चुका है। प्रदेश में शांति और सांप्रदायिक सौहार्द बनाए रखने के लिए सभी आवश्यक तैयारियां कर ली गई हैं।विश्व हिन्दू परिषद अयोध्या में भव्य राम मंदिर के निर्माण के लिए 10 लाख मंदिरो में यज्ञ कर रहे हैं और राष्ट्रपति को ज्ञापन भेज कर यह मांग करेंगे कि कानून बना कर मंदिर निर्माण की राह में आने वाली रुकावटें दूर की जाएं।पूर्व भाजपा नेता और 6 दिसंबर, 1992 को अयोध्या में विवादित ढांचे के विध्वंस के समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे कल्याण सिंह ने भी अयोध्या में हर हाल में राम मंदिर के निर्माण की प्रतिबद्धता दोहराई है। उन्होंने कहा कि अदालत का फैसला भले ही हिंदुओं के विपरीत आए, लेकिन राम मंदिर से करोड़ों हिंदुओं की आस्था जुड़ी है, इसलिए संसद को कानून बना कर राम मंदिर के निर्माण का रास्ता साफ करना चाहिए।अयोध्या स्वामित्व विवाद में पक्षकार ने कहा है कि अदालत का जो भी फैसला आएगा उसका सम्मान किया जाएगा।उन्होंने कहा कि मुसलिम पर्सनल ला बोर्ड और बाबरी मस्जिद संघर्ष समिति मुसलमानों से अपील करेगी कि अदालत का फैसला विपरीत आने पर भी कोई अप्रिय प्रतिक्रिया न करें। आवश्यकता हुई तो हम सुप्रीम कोर्ट में जाएंगे।बाबरी मस्जिद संघर्ष समिति के संयोजक ने कहा है कि निर्णय विपरीत आया तो सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया जाएगा। पर्सनल ला बोर्ड के वरिष्ठ सदस्य ने कहा कि जाहिर है कि दोनो पक्ष निर्णय अपने हक में होने की अपेक्षा रख रहे हैं, मगर महत्वपूर्ण बात यह है कि फैसला जो भी हो निहित स्वार्थी ताकतों और अराजक तत्वों को सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने का मौका नहीं मिलना चाहिए।सभी प्रमुख राजनीतिक दल अदालत के फैसले का सम्मान करने की बात कह रहे हैं, मगर राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि 1990 के दशक में प्रदेश और देश की राजनीति पर अपना व्यापक असर दिखा चुके इस मुद्दे पर फैसला आने के बाद राजनीति तो होगी ही।अयोध्या के विवादित स्थल पर स्वामित्व संबंधी मुकदमों की सुनवाई कर रही इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ का फैसला मुख्यत: तीन बिंदुओं पर केंद्रित है, पहला- क्या अयोध्या में विवादित स्थल पर 1528 के पहले कोई मंदिर था, जिसे तोड़ कर मस्जिद बनाई गई, दूसरा- क्या 1961 में बाबरी कमेटी की तरफ से दाखिल किया गया वाद 'टाइम बार' यानि निर्धारित समय सीमा के बाद दाखिल किया गया था और तीसरा, यह है कि क्या विवादित स्थल पर मुसलमानों का इसलिए कब्जा हो गया कि निश्चित समय के भीतर उसे चुनौती नहीं दी गई।अयोध्या विवाद यू तो सदियों पुराना है, मगर इसके मौजूदा स्वरूप का बीज 22 दिसंबर, 1949 में तब पड़ा जब मस्जिद में राम लला, सीता और लक्ष्मण की मूर्तियां रख दी गई और हिंदुओं ने उसे रामलला का प्रकटीकरण करार देकर वहां पूजा अर्चना शुरू कर दी। हालांकि रामलला के कथित प्रकटीकरण के बाद मस्जिद की बैरीकेडिंग कर दी गई, मगर तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू द्वारा मुख्यमंत्री गोविन्द बल्लभ पंत को भेजे गए स्पष्ट निर्देश के बावजूद किसी ने मूर्तियों को वहां से हटाने का साहस नहीं दिखाया।यहां तक कि फैजाबाद के तत्कालीन जिलाधिकारी के.के. नैय्यर ने इसी मुद्दे पर अपना पद छोड़ दिया और बाद में हिंदू महासभा के टिकट पर सांसद चुने गए।अयोध्या के विवादित स्थल पर स्वामित्व संबंधी पहला मुकदमा 1950 में गोपाल सिंह विशारद की तरफ से दाखिल किया गया, जिसमें वहां रामलला की पूजा अर्चना जारी रखने की अनुमति मांगी गई थी। दूसरा मुकदमा इसी आशय से 1950 में ही परमहंस रामचन्द्र दास की तरफ से दाखिल किया गया, जिसे बाद में उन्होंने वापस ले लिया।तीसरा मुकदमा 1959 में निर्मोही अखाड़े की तरफ से दाखिल किया गया जिसमें विवादित स्थल को निर्मोही अखाड़े को सौप देने की मांग की गई थी।चौथा मुकदमा 1961 में उत्तर प्रदेश सुन्नी सेन्ट्रल बोर्ड की तरफ से दाखिल हुआ और पांचवां मुकदमा भगवान श्रीरामलला विराजमान की तरफ से दाखिल किया गया।उपरोक्त पांचों मुकदमों में से परमहंस रामचन्द्र दास का मुकदमा वापस हो चुका है, जबकि शेष चार मुकदमों पर अदालत 24 सितंबर को फैसला सुनाएगी।