Thursday, August 28, 2008

सुलगते कश्मीर को बुझाने वाला चाहिए


जम्मू और कश्मीर दो अलग नाम और दोनों के काम भी अलग-अलग। एक हिंदूवादी तो एक मुस्लिमवादी। दोनों ही जगहों पर परिवहन व्यवस्था में भी गाडि़यों के रजिस्ट्रेशन में जे-1 और जे-2 शब्द प्रयोग हो रहे हैं। जम्मू के लिए जे-1 और कश्मीर के लिए जे-2 नंबर है। भारत संघ का यही एक ऐसा राज्य है, जहां पर राष्ट्र का नहीं राज्य का झंडा फहराया जाता है, राष्ट्रपति नहीं राज्यपाल शासन लगता है, ऐसा क्यों? क्योंकि कश्मीर पाक में मिलना चाहता है, वहां पर पाकिस्तान का झंडा फहराया जा रहा है जो संवैधानिक रूप से गलत ही नहीं है संज्ञेय अपराध भी है। फिर भी भारत सरकार मौन धारण किए हुए है। यदि कश्मीर के अलावा और किसी जगह की यह घटना होती तो पुलिस तुरंत कार्यवाही कर जेल में ठूंस देती पर वहां तो पुलिस भी लाचार है। 1947 में भारत के विभाजन के बाद अनेक राजा, महाराजाओं ने सरदार बल्लभभाई पटेल की सक्रियता के कारण अपने-अपने राज्य को भारत संघ में मिला दिया लेकिन इस संबंध में जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरि सिंह की हिचकिचाहट बनी रही और उन्होंने यथास्थिति बनाए रखने के लिए पाकिस्तान से एक समझौता भी कर लिया था और जिन्ना ने आनन-फानन में कश्मीर को पाक में मिलाने के लिए पठानों की एक फौज को वहां भेज कर स्थानीय लोगों को डरा धमका कर पाक में शामिल होने के लिए एक माहौल बनाने लगे। राजा हरि सिंह तो डरकर श्रीनगर आ गए और भारत संघ से करार करने को दबे मन से मजबूर हो गए। यह राज्य भारत में सशर्त मिला। पटेल की कड़ी नीति वहां पर बेकार हो गई जब जवाहर लाल नेहरू ने इस राज्य का जिम्मा खुद ले लिया और इस राज्य के लिए अलग संवैधानिक व्यवस्था की गई। शेख अब्दुल्ला ने तो यहां तक कह दिया कि इस राज्य का भारत में पूर्ण विलय वास्तविकता से दूर है। जनसंघीय नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने इसके खिलाफ 1952 में यक आंदोलन चलाया, किंतु शेख अब्दुल्ला ने उनको गिरफ्तार करा लिया और बंदी गृह में ही उनकी संदिग्धावस्था में मौत हो गई। इसके बाद शेख अब्दुल्ला की सरकार सदरे रियासत कर्ण सिंह ने बर्खास्त कर दी। तब से आज तक इसका इतिहास घातों और प्रतिघातों से भरा पड़ा है।आज जम्मू-कश्मीर जल रहा है। अमरनाथ यात्रियों के लिए बेहतर सुविधा देने के लिए जमीन तो एक बहाना है। साठ वर्ष पूर्व पृथकता के जो बीज बो दिए गए थे आज उसी की फसल पक कर तैयार हो चुकी है। काश इस राज्य के विलय का ठेका पटेल से न लिया होता तो शायद यह नौबत नहीं आती। यदि नेहरू ने इसके विलय की जिम्मेदारी ली थी तो इसका निर्वहन करना चाहिए था जो कि नहीं किया गया। कई ऐसे मौके आए कि भारत यदि चाह लेता तो कश्मीर हमेशा-हमेशा के लिए भारत का अंग बन जाता, लेकिन यहां के नेता शक्तिशाली देशों के दबाव में आकर यह कारनामा नहीं कर सके।पाकिस्तान में किसी की भी सरकार हो उसका रवैया भारत के ही खिलाफ होगा। वहां के मदरसों में भारत विरोधी शिक्षा दी जाती है, जब खिलाफत की शिक्षा जेहन में चली जाती है तो फिर आसानी से निकलती नहीं है। भारत यह जानते हुए भी कि पाक में आतंकियों को न सिर्फ प्रशिक्षण दिया जा रहा है, बल्कि उन्हें सेना की मदद से चोरी छिपे भारत में प्रवेश करवाया जा रहा है फिर भी चुप है। भारत-पाक के बीच अंतरराष्ट्रीय रेखा पर जो संधि हुई थी उसका भी पाक आए दिन उल्लंघन कर रहा है, फिर भी हम चुप हैं। भारत सिर्फ अपनी आपत्ति दर्ज करा सकता है, सो वह करता है इसके आगे उसके कदम नहीं बढ़ सकते। ऐसी क्या मजबूरी है कि हमसे हर मामले में एक छोटा सा देश, जिसकी कुल आबादी लगभग उत्तर प्रदेश के बराबर है, मुझे घूर रहा है, मुझे ललकार रहा है, मुझे आतंकित कर रहा है, नन्हें बच्चों को बम धमाकों से उड़ाया जा रहा है। हम चुप हैं। एक ओर तो हम शक्शिाली राष्ट्र होने का डंका पीटते हैं और कारनामें एक कमजोर राष्ट्र के जैसे। हमारी फौज विश्वसनीय और बहादुर हैं, हमें उन पर नाज है, फिक्र है। लेकिन उन्हें चलाने के लिए एक हिम्मत वाला सेनापति चाहिए। निर्भय होकर निर्णय लेने की क्षमता होनी चाहिए। जब तक हम पाक के खिलाफ कोई कठोर कदम नहीं उठाएंगे तब तक वह कश्मीर में अमन चैन कायम नहीं रहने देगा। उसका एक ही मकसद है कि वहां के लोगों में इतना भय पैदा कर दो कि लोग खुद ही मजबूर हो जाएं पाक का हिस्सा बनने के लिए।

1 comment:

अनुनाद सिंह said...

वोट बैंक के लालच ने सभी सेक्युलरों को देशद्रोह की हद तक जाने के लिये मजबूर कर दिया है।

आपने अच्छा विचारा है। पहले महंगाई और बाद में काश्मीर से ध्यान हटाने के लिये ऊड़ीसा में एक वृद्ध समाजसेवी की हत्या करा दी गयी। देश की जनता देश के साथ कब तक छलावा बर्दास्त करेगी।