Monday, December 21, 2009

2009 रिकार्ड महंगाई के रूप में याद किया जाएगा

भारत के कृषि क्षेत्र को 2009 में सूखे के साथ बाढ़ की मार भी झेलनी पड़ी। इसका नतीजा यह हुआ कि सब्जियों के साथ-साथ दालों, चीनी तथा अनाज के दाम आसमान पर पहुंच गए, जिसका खामियाजा उपभोक्तओं को भुगतना पड़ा। कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार मई में फिर केंद्रीय सत्ता पर काबिज हुई, लेकिन कृषि उत्पादों की ऊंची कीमतों पर नियंत्रण रखने में असफल रही। पिछले दो साल के दौरान कृषि क्षेत्र खाद्यान्न उत्पादन के मामले में रिकार्ड ऊंचाई पर पहुंचा था। लेकिन इस साल खाद्यान्न उत्पादन तो पिछले साल के स्तर पर भी कायम रहने में असफल रहा है। देश का आधा हिस्सा सूखे से प्रभावित रहा। यह 1972 के बाद सूखे की सबसे खराब स्थिति है। हालांकि, 1979, 1987 तथा 2002 के साल भी सूखे के लिहाज से देश के लिए काफी खराब रहे थे। देश के 13 राज्यों के 316 जिलों में दक्षिण-पश्चिम मानसून की सालाना आगमन प्रभावित हुआ, जिससे कृषि उत्पादन बुरी तरह प्रभावित हुआ। साथ ही गेहूं निर्यात के फैसले को भी वापस लिया। सरकार ने कृषि क्षेत्र को बचाने के लिए डीजल सब्सिडी तथा अतिरिक्त बिजली आपूर्ति की घोषणा की, जिससे खड़ी फसलों को बचाया जा सके। क्षोभ की बात यह है कि आजादी के 60 साल से अधिक बाद भी देश की 60 प्रतिशत कृषि बारिश के पानी पर निर्भर है। साथ ही देश में आधुनिक वेयरहाउस या कोल्ड स्टोरेज की काफी कमी है।अभी सरकार सूखे से निपटने के उपाय पूरी तरह कर भी नहीं पाई थी कि देश के चार प्रमुख खाद्य उत्पादक राज्यों :आंध्र प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक और महाराष्ट्र: में देर से हुई बारिश से बाढ़ आ गई। सूखे तथा बाढ़ के दोहरे प्रभाव से खरीफ के खाद्यान्न उत्पादन 2.1 करोड़ टन की कमी आई। इसकी मुख्य वजह चावल उत्पादन में 1.5 करोड़ टन की कमी थी। हालांकि, केंद्र सरकार ने दावा किया कि उसके पास राशन की दुकानों से बिक्री के लिए क्फ् महीने का खाद्यान्न का भंडार है, लेकिन इसके बावजूद खाद्य मुद्रास्फीति साल के अंत तक 19.95 प्रतिशत के दस साल के शीर्ष स्तर पर पहुंच गई है। प्याज की कीमतों ने भी लोगों की आंखों से आंसू निकाले, वहीं आलू के दाम भी ऊंचाई पर पहुंच गए। 40 रुपए प्रति किलोग्राम के स्तर पर पहुंची चीनी की मिठास भी फीकी पड़ गई। संप्रग सरकार राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून जैसे वादों के बाद सत्ता में लौटी थी। बढ़ती कीमतों के कारण सरकार को कई बार विपक्षी दलों के हमलों का सामना करना पड़ा। यदि सालाना आधार पर देखा जाए, तो आलू के दाम 136 प्रतिशत बढ़े हैं, जबकि दालें 40 फीसद महंगी हुई। प्याज 15.4 प्रतिशत चढ़ा है। अन्य खाद्य वस्तुओं में गेहूं 14 प्रतिशत, दूध 13.6 प्रतिशत, चावल 12.7 प्रतिशत और फल 11 प्रतिशत महंगे हुए।केंद्र ने कई बार कीमतों का दोष राज्य सरकारों पर डालते हुए कहा कि वे कालाबाजारियों के खिलाफ कार्रवाई करने में असफल रहे हैं। साथ ही सरकार ने तर्क दिया कि पिछले पांच साल के दौरान गेहूं और चावल के न्यूनतम समर्थन मूल्य में काफी बढ़ोतरी हुई है, जिसका खुदरा कीमतों पर असर पड़ा है। इस साल भी धान की सामान्य किस्म का न्यूनतम समर्थन मूल्य 100 रुपए बढ़ाकर 1,000 रुपए प्रति क्विंटल किया गया है। इन सबके बीच सरकार ने चावल और चीनी पर आयात शुल्क खत्म कर दिया। साथ ही चीनी के वायदा कारोबार पर भी रोक लगा दी गई। सरकार ने कीमतों पर नियंत्रण के लिए चावल और चीनी को खुले बाजार में जारी करने का फैसला किया। हालांकि, इन सब नकारात्मक चीजों के बीच खाद्य तेल की कीमतें उचित स्तर पर बनी रहीं। शून्य आयात शुल्क के दौर के बीच 2008-09 के अक्तूबर में समाप्त हुए सीजन में वनस्पति तेलों का आयात 86 लाख टन के रिकार्ड स्तर पर पहुंच गया। गेहूं, चावल और चीनी के अलावा सरकार ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिए आयातित खाद्य तेल तथा दालों की बिक्री भी शुरू की, जिससे खाद्य सब्सिडी में काफी बढ़ोतरी हुई। चालू वित्त वर्ष में खाद्य सब्सिडी के 60,000 करोड़ रुपए के पार जाने की संभावना है। 2004-05 में यह 19,000 करोड़ रुपए रही थी।

1 comment:

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

भूपेन्द्र जी स्थिति इससे भी भयावह है, यह सब कागजी आंकड़े है ! किसी गरीब से पूछिए कि उसे कितनी सब्सिडी मिली ? सरकार कुछ करना नहीं चाहती कच्ची चीनी कांडला पोर्ट पर साद रहे है इनके पास धोने और मिलो तक पहुचाने के लिए वाहन नहीं है! हैं न गरीब और महंगाई के साथ यह मजाक ?