Tuesday, December 29, 2009

भाजपा के लिए यह साल 'ग्रेट फाल' का रहा

सही मायनों में भाजपा के लिए यह साल 'ग्रेट फाल' का रहा। पिछले साल दिसंबर में राजस्थान और दिल्ली से शुरू हुआ हार का सिलसिला इस साल दिसंबर में झारखंड तक जारी रहा। पार्टी लगातार दूसरी बार लोकसभा चुनाव हारी और लालकृष्ण आडवाणी का प्रधानमंत्री बनने का सपना चकनाचूर हो गया। इसके बाद पार्टी की दूसरी पीढ़ी में अपना अपना वर्चस्व कायम करने का ऐसा घमासान मचा जिस पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने हस्तक्षेप करते हुए 'दिल्ली से बाहर' के व्यक्ति नितिन गडकरी को पार्टी अध्यक्ष बना दिया। आडवाणी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार घोषित करने पर वाजपेई-शेखावत-आडवाणी की मशहूर 'त्रिमूर्ति' में से एक भैरों सिंह शेखावत ने ही उसकी सार्वजनिक मुखालफत करते हुए कहा कि 'प्रधानमंत्री तो जनादेश से तय होगा'। शेखावत ने तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह से भी दो-दो हाथ करते हुए कहा कि जब मैं भाजपा में आया राजनाथ पैदा भी नहीं हुए थे। इसके बाद तो पार्टी में नेताओं के बीच आरोपों-प्रत्यारोपों और अनुशासनहीनता का 'खुला खेल फर्रूखाबादी' शुरू हो गया। इसी बीच भाजपा में दम घुटने की बात कहते हुए कल्याण सिंह ने पार्टी को एक बार फिर 'टा-टा' कह दिया। भाजपा को एक और बड़ा झटका मार्च में उसके लंबे समय के सहयोगी दल बीजद ने उससे किनारा करके दिया।जसवंत सिंह ने यह कह कर आडवाणी को परेशानी में डाल दिया कि संसद पर हमले के बाद सीमा पर सेना भेजा जाना ठीक निर्णय नहीं था। बाद में उन्होंने आडवाणी के इस दावे की भी हवा निकाल दी कि कंधार विमान अपहरण मामले में कुख्यात आतंकवादियों को छोड़े जाने के कैबिनेट के निर्णय में आडवाणी शामिल नहीं थे। लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान ही दिल्ली के विवादास्पद व्यापारी सुधांशु मित्तल को असम का प्रभारी बनाए जाने पर राजनाथ और जेटली के बीच मनमुटाव इस हद तक बढ़ गया कि जेटली ने केन्द्रीय चुनाव समिति की बैठकों में शामिल होना तक छोड़ दिया। इसी दौरान पीलीभीत से पार्टी के उम्मीदवार वरुण गांधी के कथित मुस्लिम विरोधी भाषण ने पार्टी में दरार को और बढ़ा दिया। बाद में पार्टी के ही कुछ नेताओं ने कहा कि कांग्रेस को जिताने में 'दो गांधी बंधुओं का हाथ रहा, एक राहुल और दूसरे वरुण'। आडवाणी द्वारा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को निशाना बनाने की रणनीति और पार्टी में आपसी घमासान भाजपा को बहुत भारी पड़ी और वह 2004 के लोकसभा चुनाव में मिली 138 सीटों से घट कर 2009 में 116 सीट पर सिमट गई। इसके बाद पार्टी का अंदरूनी घमासान थमने की बजाए और उग्र हो गया। जून में दिल्ली में हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में वरिष्ठ नेताओं के बीच हार के कारणों को लेकर आपस में ''तू-तू-मैं-मैं'' तक की नौबत आ गई। बैठक से पहले यशवंत सिन्हा को उनके सभी पदों से हटा दिया गया। लेकिन जसवंत सिंह ने उनका पत्र बैठक में बांटा। शौरी ने भी साथ दिया। बैठक में आडवाणी को भाजपा संसदीय दल का नेता नियुक्त किया गया और उन्होंने अरुण जेटली को राज्यसभा में विपक्ष का नेता तथा सुषमा स्वराज को लोकसभा में पार्टी का उप नेता नियुक्त किया।कार्यकारिणी और आडवाणी के इन फैसलों का यशवंत, जसवंत और शौरी ने कड़ा विरोध जताते हुए कहा कि चुनाव में हार के जिम्मेदार लोगों को 'सज़ा की बजाय इनाम' दिया जा रहा है। हार की जिम्मेदारी तय करने के लिए 'छोटी मछलियों' को चुना गया। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूरी को पद से हटने को मजबूर किया गया। राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसंधुरा राजे को प्रदेश विधानसभा में विपक्ष के नेता पद से हटने को कहा गया लेकिन कई महीने नाकों चने चबवाने के बाद ही वह अपनी शर्तो पर हटीं। बाद में शिमला में चिंतन बैठक के दौरान जिन्ना की तारीफ करने को मुद्दा बना कर जसवंत सिंह को पार्टी से निकाल दिया गया। इस सबके बीच संघ ने पार्टी में अपना हस्तक्षेप बढ़ाते हुए नेतृत्व परिर्वतन का दबाव बनाया और यह भी स्पष्ट कर दिया कि वह दिल्ली के जेटली, सुषमा, वेंकैया या अनंत कुमार की बजाय 60 साल से कम किसी 'बाहरी' व्यक्ति को भाजपा के शीर्ष पद पर चाहता है। संघ के दबाव में पार्टी में नेतृत्व परिर्वतन की प्रक्रिया तेज़ हो गई निर्धारित समय से पहले ही आडवाणी को विपक्ष के नेता पद से हटाने के दूसरे ही दिन नितिन गडकरी को राजनाथ के स्थान पर अध्यक्ष भी घोषित कर दिया गया। गडकरी ने कार्यभार संभालने के बाद पार्टी में 'नया वर्क कल्चर' बनाने की घोषणा की। उनका पहला बड़ा राजनीतिक निर्णय झारखंड में झामुमो के शिबू सोरेन के नेतृत्व में भाजपा के सहयोग से सरकार बनाने का है। उन्हीं शिबू सोरेन के नेतृत्व में जिनको 'दागी' बताते हुए केन्द्रीय मंत्री के रूप में हटाने की मांग को लेकर भाजपा कई दिनों तक संसद की कार्यवाही ठप कर चुकी है।

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