Wednesday, September 3, 2008

हिंदू-मुस्लिम की एक अनूठी दास्तान


ऐसी मान्यता है कि पूजा-पाठ और सतकर्म व्यर्थ नहीं जाते और उसका फल मनुष्य को एक न एक दिन जरूर मिलता है और खासतौर से ऐसे समय में जब कोई संकट के बीच घिरा हो। मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना। यही देखने को मिला है बिहार में कोसी नदी से आई बाढ़ ने जहां लोगों को घर छोड़ने पर मजबूर कर दिया है, वहीं संकट की इस घड़ी में मानवता के धर्म के चलते सभी मजहबी दीवारें भी ढह गई हैं। सहरसा जिले में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता अपने बाढ़ पीडि़त रोजेदार मुस्लिम भाइयों को पवित्र महीने रमजान में इफ्तार करा रहे हैं। यह नजारा सहरसा के जिला स्कूल परिसर में संघ परिवार के एक घटक सेवा भारती द्वारा चलाये जा रहे एक राहत शिविर का है। यहां रमजान में रोजा रखने वाले मुस्लिम समुदाय के लगभग 100 लोगों को आरएसएस के कार्यकर्ता मगरिब की अजान होते ही मुढी और घुधनी परोस कर उन्हें रोजा इफ्तार करा रहे हैं। इसी राहत शिविर में अपने परिवार के साथ शरण लिए मधेपुरा जिले के परमा गांव निवासी मो. सलाउद्दीन बताते हैं कि वे लोग पिछले करीब एक सप्ताह से यहां हैं और उनके साथ कोई भेदभाव नहीं बरता जा रहा है। ऐसा ही नजारा मधेपुरा स्थित एक मुस्लिम मदरसा के छात्रावास का भी है जहां कुमारखंड और मुरलीगंज के विभिन्न इलाकों से अपनी जान बचाकर आए साठ से अधिक साधु शरण लिए हुए हैं। इन्हें यहां के मुस्लिम शिक्षक और छात्रों द्वारा न केवल उनके आवास और भोजन की व्यवस्था की गयी है, बल्कि उन्हें यहां पूजा पाठ करने के लिए उन्होंने एक खास स्थान भी दे रखा है। मधेपुरा स्थित मदरसा के छात्रवास में शरण लिए एक साधु महेन्द्र साह ने बताया कि उक्त छात्रावास में उन्हें किसी तरह की कोई कठिनाई नहीं है और यहां के मुसलमान भाइयों ने संकट की इस घड़ी में न केवल उन्हें शरण दी, बल्कि उनकी बहुत मदद की है।

2 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

अनुपम उदाहरण है। पर कहीं यह भी राजनीति का एक हिस्सा तो नहीं?

Udan Tashtari said...

५ दिन की लास वेगस और ग्रेन्ड केनियन की यात्रा के बाद आज ब्लॉगजगत में लौटा हूँ. मन प्रफुल्लित है और आपको पढ़ना सुखद. कल से नियमिल लेखन पठन का प्रयास करुँगा. सादर अभिवादन.