Thursday, September 23, 2010

विवाद के 60 साल

राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद देश के सबसे अहम और संवेदनशील मामलों में से है।
60 साल से फैसले की बाट जोह रहे इस मामले में फैसला आनेवाला है। फैसला किसके हक में होगा और उसके क्या नतीजे होंगे, यह तो फैसले के बाद ही पता चलेगा लेकिन क्यों और कैसे यह मामला इतना चर्चित हो गया, यह जानना भी काफी मायने रखता है। ऐसा मामला, जो लाखों लोगों की धार्मिक भावना से ताल्लुक रखता हो और जो सरकार बनाने और गिराने की वजह बन गया हो, जाहिर है उसके फैसले पर पूरे देश की निगाहें हैं। इस हफ्ते राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद पर कोई नतीजा निकलने की उम्मीद है। इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच इस मामले पर फैसला सुनाएगी। लेकिन क्या किसी भी नतीजे से दोनों पक्ष सहमत हो पाएंगे? ऐसा नहीं हुआ तो क्या होगा? इन तमाम सवालों पर चर्चा से पहले जानते हैं कि आखिर एक मंदिर और मस्जिद को लेकर विवाद क्यों और किस हालत में पनपा? सांप्रदायिक सौहार्द का प्रतीक अयोध्या से हिंदू धर्म का नाता जगजाहिर है लेकिन यह किसी एक मजहब की जागीर नहीं है। यहां बड़ी संख्या में मुसलमान भी रहते हैं। अनुमान है कि अयोध्या में पांच हजार से ज्यादा मंदिर हैं तो करीब 85-90 मस्जिदें भी हैं। दिलचस्प यह है कि कई मंदिर और मस्जिद तो एक दूसरे से सटे हुए हैं। ऐतिहासिक औरंगजेबी मस्जिद के ठीक पीछे सीताराम निवास कुंज मंदिर है। दोनों में महज एक दीवार का फासला है। यही नहीं, 5वीं और 7ठीं शताब्दी में चीनी इतिहासकारों ह्यान और ह्यून सांग ने यहां की यात्रा की, क्योंकि उस वक्त इसे बौद्ध धर्म की पवित्र नगरी माना जाता था। कह सकते हैं कि सांप्रदायिक भाईचारे का प्रतीक रही है अयोध्या नगरी। यहां तक कि जिस बाबरी मस्जिद को लेकर विवाद है, उसमें मौजूद कुएं से सभी धर्मों के लोग पानी पीते थे। फैजाबाद के डिस्ट्रिक्ट गैजेटर (डीजीएफ) के मुताबिक इस कुएं के पानी को आसपास के लोग चमत्कारी और बीमारियों से निजात दिलाने वाला मानते थे। 1857 से पहले हिंदू और मुसलमान मिलकर मिलकर इस जगह पर पूजा करते थे, लेकिन गदर के बाद तस्वीर बदल गई। कैसे खड़ा हुआ विवाद 1853 में इस जगह के आसपास पहली बार दंगे हुए। 1859 में अंग्रेजी प्रशासन ने विवादित जगह के आसपास बाड़ लगा दी। मुसलमानों को ढांचे के अंदर और हिंदुओं को बाहर चबूतरे पर पूजा करने की इजाजत दी गई। फरवरी 1885 में महंत रघुबर दास ने फैजाबाद के उप-जज के सामने याचिका दायर की कि यहां मंदिर बनाने की इजाजत दी जाए। जज पंडित हरिकृष्ण ने यह कहकर इसे खारिज कर दिया कि यह चबूतरा पहले से मौजूद मस्जिद के इतना करीब है कि इस पर मंदिर बनाने की इजाजत नहीं दी जा सकती। असली विवाद शुरू हुआ 23 दिसंबर 1949 को, जब भगवान राम की मूर्तियां मस्जिद में पाई गईं। हिंदुओं का कहना था कि भगवान राम प्रकट हुए हैं, जबकि मुसलमानों ने आरोप लगाया कि किसी ने रात में चुपचाप मूर्तियां वहां रख दीं। उस वक्त के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने यूपी के मुख्यमंत्री जी. बी. पंत से इस मामले में फौरन कार्रवाई करने कहा। यूपी सरकार ने मूर्तियां हटाने का आदेश दिया लेकिन जिला मैजिस्ट्रेट के. के. नायर ने दंगों और हिंदुओं की भावनाओं के भड़कने के डर से इस आदेश को पूरा करने में असमर्थता जताई। हालांकि नायर के बारे में माना जाता है कि वह कट्टर हिंदू थे और मूर्तियां रखवाने में उनकी पत्नी शकुंतला नायर का भी रोल था। बहरहाल, सरकार ने इसे विवादित ढांचा मानकर ताला लगवा दिया। 16 जनवरी 1950 को गोपाल सिंह विशारद नामक शख्स ने फैजाबाद के सिविल जज के सामने अर्जी दाखिल कर यहां पूजा की इजाजत मांगी। उस वक्त के सिविल जज एन. एन. चंदा ने इजाजत दे दी। मुसलमानों ने इस फैसले के खिलाफ अर्जी दायर की। विवादित ढांचे की जगह मंदिर बनाने के लिए 1984 में वीएचपी ने एक कमिटी गठित की। यू. सी. पांडे की याचिका पर फैजाबाद के जिला जज के. एम. पांडे ने 1 फरवरी 1986 को हिंदुओं को पूजा करने की इजाजत देते हुए ढांचे पर से ताला हटाने का आदेश दिया। इसके विरोध में बाबरी मस्जिद संघर्ष समिति का गठन किया गया। 06 दिसंबर 1992 को बीजेपी, वीएचपी और शिवसेना समेत लाखों हिंदूवादी कार्यकर्ताओं ने विवादित ढांचे को गिरा दिया। देश भर में हिंदू-मुसलमानों के बीच दंगे भड़के गए, जिनमें करीब दो हजार लोग मारे गए। दूसरी ओर, 1984 में सिर्फ दो लोकसभा सीटें जीतनेवाली बीजेपी इस मसले की बदौलत 1996 में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। मंदिर या मस्जिद! माना जाता है कि बाबर के सहायक मीर बाकी ने 1528 में यहां मस्जिद बनवाई। हिंदूवादियों का मानना है कि इस मस्जिद का निर्माण मंदिर को तोड़कर कराया गया। बाबरनामा में इस बारे में कई जिक्र नहीं मिलता क्योंकि इस काल के पेज ही गायब हैं, जबकि तारीख-ए-बाबरी में लिखा है कि कई मंदिरों को तोड़कर मस्जिद बनाई गईं। लेकिन इस जगह के बारे में साफ तौर पर कुछ नहीं कहा गया। हिंदूवादी मानते हैं कि 1940 तक इसे मस्जिद-ए-जन्मस्थान कहा जाता था और 1992 में मस्जिद गिराए जाने के दौरान यहां से कुछ अवशेष मिले, जो मंदिर होने की ओर इशारा करते हैं। दूसरी ओर, 'ए हिस्टोरियंस रिपोर्ट टु नेशन' में मशहूर इतिहासकार डी. एन. झा समेत तीन इतिहासकारों ने कहा कि इस जगह पर मंदिर के कोई सबूत नहीं मिले। एएसआई के बी. बी. लाल ने खुदाई में पाए गए जिन खंभों (1. 70 मी ऊंचे) की बात कही, उन पर मंदिर बनना मुश्किल है। जन्मस्थान शब्द का इस्तेमाल भी 18वीं शताब्दी में ही सुनने को मिलता है, उससे पहले नहीं। केस कैसे-कैसे इस विवाद को लेकर दो तरह के मामले चल रहे हैं : पहला, मालिकाना हक को लेकर और दूसरा, मस्जिद गिराए जाने में भूमिका को लेकर। 24 तारीख को जिन मामलों में फैसला आएगा, उनमें गोपाल सिंह विशारद (1950), निर्मोही अखाड़ा (1959), यूपी सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड (1961) और भगवान श्रीराम लल्ला विराजमान (1989) द्वारा दायर मामले हैं। अदालत फैसला सुनाएगी कि 1538 से पहले क्या यहां कोई मंदिर था या नहीं? मुसलमानों का इस जगह पर जायज हक है या उन्होंने गलत तरीके से हक जताया? इन मामलों की सुनवाई पहले फैजाबाद सिविल कोर्ट कर रहा था। 1989 में इलाहाबाद कोर्ट की स्पेशल बेंच बनाए जाने के बाद सारे मामले वहां ट्रांसफर कर दिए गए। बेंच ने 26 जुलाई को सुनवाई पूरी कर ली है। अब फैसले का इंतजार है। तर्क अपने-अपने मामले की सुनवाई कर रही बेंच के तीन जजों में से एक इसी महीने रिटायर हो रहे हैं। अगर वह फैसला किए बिना रिटायर हो जाते हैं तो भारतीय कानून के मुताबिक मामले की पूरी सुनवाई फिर से होगी। ऐसे में हो सकता है कि वह फैसला करके जाएं। यह भी हो सकता है कि फैसला टाल दिया जाए। यह तय है कि जिस पक्ष के खिलाफ फैसला आएगा, वह सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाएगा। फैसले के बाद कोई हिंसा न भड़के , इसके लिए सरकार ने हिंदू और मुस्लिम नेताओं के साथ बातचीत शुरू कर दी है। ऑल इंडिया बाबरी मस्जिद एक्शन कमिटी के पूर्व कनवीनर जावेद हबीब ने आउट ऑफ कोर्ट सेटलमेंट के लिए पीएम को पत्र लिखा। लेकिन सभी इसके पक्ष में नहीं हैं। मामले में पहला केस दायर करनेवाले गोपाल सिंह विशारद के बेटे राजेंद्र सिंह विशारद का कहना है कि हम किसी तरह का समझौता नहीं चाहते। मंदिर से कम कुछ नहीं चाहिए। आखिर 60 साल से हम उसी के लिए लड़े हैं और हमें हमारा हक मिलना चाहिए। खुदाई में काफी ऐसे सबूत मिले हैं, जो बताते हैं कि यहां मंदिर था। अगर हम हार गए तो इंसाफ के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाएंगे। क्या हो सकता है आगे बाबरी मस्जिद एक्शन कमिटी के कनवीनर जफरयाब जिलानी का दावा है कि उनके पास काफी मजबूत सबूत हैं। वह कहते हैं कि चारों मामलों में मैं 1986 से वकील हूं। हमें उम्मीद है कि फैसला हमारे हक में होगा लेकिन फिर भी हम हर फैसले के लिए तैयार हैं। अगर हम हार गए तो सुप्रीम कोर्ट में लड़ेंगे। आउट ऑफ कोर्ट सेटलमेंट की बात बेमानी है, लेकिन हम किसी तरह की सांप्रदायिक हिंसा को सपोर्ट नहीं करेंगे। जिसके भी पक्ष में फैसला आएगा, दूसरे की नाराजगी तय है। इसके मद्देनजर यूपी सरकार ने अभी से सुरक्षा बढ़ानी शुरू कर दी है। प्रधानमंत्री हाल में संपादकों के साथ मीटिंग में कह चुके हैं कि कश्मीर मसला, नक्सल समस्या और अयोध्या पर फैसला आनेवाले भारत की तस्वीर तय करेंगे। वैसे, राजनीतिक हलकों में फैसले के लिए यह वक्त सही नहीं माना जा रहा। अगले महीने कॉमनवेल्थ गेम्स शुरू होने हैं तो आनेवाले कुछ महीनों में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा, फ्रेंच राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी और रूसी राष्ट्रपति भारत आनेवाले हैं। ऐसे में किसी भी तरह का तनाव भारी पड़ सकता है। फिलहाल, 24 सितंबर का इंतजार करना बेहतर है! कब क्या हुआ 1528 : माना जाता है कि बाबर के सचिव मीर बाकी ने यहां बाबरी मस्जिद बनाई। 1853 : पहली बार इस जगह के पास सांप्रदायिक दंगे हुए। 1859 : अंग्रेजी प्रशासन ने विवादित जगह के आसपास बाड़ लगा दी। मुसलमानों को ढांचे के अंदर और हिंदुओं को बाहर पूजा करने की इजाजत दी गई। 1949 : 23 दिसंबर को भगवान राम की मूर्तियां मस्जिद में पाई गईं। मुसलमानों ने इसका विरोध किया। दोनों पक्षों ने मुकदमा दायर कर दिया। सरकार ने इसे विवादित ढांचा मानकर ताला लगवा दिया। 1950 : 16 जनवरी को गोपाल सिंह विशारद नामक शख्स ने फैजाबाद के सिविल जज के सामने अर्जी दाखिल कर पूजा की इजाजत मांगी। सिविल जज ने इजाजत दे दी। मुसलमानों ने इस फैसले के खिलाफ अर्जी दायर की। 1984 : विवादित ढांचे की जगह मंदिर बनाने के लिए वीएचपी ने एक कमिटी गठित की। बाद में इस आंदोलन की कमान बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी ने ले ली। 1986 : सरकार ने हिंदुओं को पूजा करने के लिए ढांचे से ताला हटाने का आदेश दिया। इसके विरोध में बाबरी मस्जिद संघर्ष समिति का गठन किया गया। 1989 : वीएचपी ने मंदिर निर्माण आंदोलन तेज किया और विवादित ढांचे के पास राम मंदिर की नींव रखी। मुलायम सरकार के अनुरोध पर विवादित ढांचे से संबंधित सारे मामले इलाहाबाद की लखनऊ बेंच को ट्रांसफर कर दिए गए। 1992 : 12 दिसंबर को बीजेपी, वीएचपी और शिवसेना के कार्यकर्ताओं ने विवादित ढांचे को गिरा दिया। देश भर में हिंदू मुसलमानों के बीच दंगे भड़के दंगों में करीब दो हजार लोगों की मौत हो गई। मामले की जांच के लिए 16 दिसंबर को लिबरहान आयोग गठित किया गया। जनवरी 2002 : प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इस मामले को सुलझाने के लिए अयोध्या समिति का गठन किया। फरवरी 2002 : वीएचपी ने 15 मार्च से राम मंदिर निर्माण शुरू करने का ऐलान किया। सैकड़ों कार्यकर्ता अयोध्या में जमा हुए। हिंदू कार्यकर्ता जिस गाड़ी से लौट रहे थे, उस पर गोधरा में अराजक तत्वों ने आग लगा दी। इसमें 58 लोग जिंदा जल गए। इसके बाद हुए गुजरात दंगों में सैकड़ों लोगों की जानें गईं। 2003 : आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया ने मंदिरों के अवशेषों की तलाश में खुदाई शुरू की, लेकिन कोई ठोस नतीजा नहीं निकला। 2009 : 30 जून को 17 साल और 48 बार एक्सटेंशन के बाद लिबरहान आयोग ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को रिपोर्ट सौंपी। इसमें अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी समेत बीजेपी, शिवसेना और आरएसएस के कई टॉप नेताओं पर सांप्रदायिक तनाव फैलाने का शक जाहिर किया गया।

No comments: